Sunday 4 March 2012

सुन भाई हरगुनिया, निर्गुनिया फाग: प्रेम शर्मा की दो कविताएं

प्रेम शर्मा अपने ज़माने के लोकप्रिय गीतकार थे. 2003 में उनका निधन हो गया. उनका एकमात्र संग्रह "ना वे रथवान रहे" मरणोपरांत प्रकाशित हुआ, 2005 में, जिसका श्रेय उनकी बेटियों -ऋतु और ऋचा तथा बड़े दामाद रोमेल मुद्राराक्षस को जाता है. संग्रह में कितनी ही रचनाएं हैं जिन्हें साझा किया जा सकता था. फिर मुझे लगा, पहले अलग-अलग रंगतों की, भिन्न भाव-भूमियों पर आधारित दो रचनाएं ही साझा करूं. होली नज़दीक है, तो इस मौके पर 'निर्गुनिया फाग' उपयुक्त लगी. 'पुलिया पर बैठा बूढ़ा' बहुत-कुछ-कहती कविता लगी इस अर्थ में कि वर्तमान में बैठा एक  बूढ़ा आदमी अपने जीवन पर नज़र डालते हुए कैसे जीवन और जगत पर भी टिप्पणी करता रहता है, अनायास ही. इन दोनों रचनाओं के बीच छब्बीस साल का फ़ासला है. दोनों रचनाएं पूर्व-प्रकाशित भी हैं : पहली साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपी थी, और दूसरी, ज्ञानोदय में. दूसरी कविता को इस आलोक में भी देखा जा सकता है कि यह उनकी आखिरी कविता भी है. प्रेम शर्मा की कविताई पर सबसे पहली बार मेरा ध्यान खींचा था, उनकी कविता "घोड़ों का अर्ज़ीनामा" ने, जिसे ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस ने अपनी दीवार पर साझा किया था. इस कविता पर मेरी टिप्पणी थी : "क्या खूब कहानी कही है. दासता के खिलाफ़, और आज़ादी के ह्क़ में ! अंग्रेज़ी में जो जुमला चलता है, 'from the horse's mouth', वह विश्वसनीयता का प्रतीक माना जाता है. इस अर्थ में तो घोड़ों का बयान और भी विश्वसनीय बन जाता है. यह कविता यहां साझा करके तुमने अपने पिता का पुण्य-स्मरण तो किया ही है, यह भी बता दिया है कि कविता और आम लोगों से जोड़ने वाली भाषा के 'जीन्स' तुम्हें कहां से मिले हैं."

प्रेम शर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रसिद्ध गीतकार भारत भूषण, कुबेरदत्त (दुर्योग से दोनों का पिछले दिनों ही निधन हुआ है), सुरेश सलिल और निर्मला गर्ग ने बेहद आत्मीयतापूर्वक लिखा है, जिससे गुज़रने के मायने हैं एक अच्छे गीतकार और शानदार इंसान से रू-ब-रू होना. मैं हुआ, मुझे अच्छा लगा, और इसी से मन बना कि उनका लिखा कुछ साझा किया जाए.


सुन भाई हरगुनिया, निर्गुनिया फाग

जल ही
जल नहीं रहा,
             आग नहीं
             आग
सूरत बदले
चेहरे
             सीरत बदला

             जहान,
पानी उतरा
दर्पण,            

             खिड़की-भर
             आसमान,
ढलके
रतनार कंवल, 

             पूरते
             सुहाग,
जीते-
मरते शरीर 

              दुनिया
              आती-जाती,
जूझते हुए
कंधे, 

             छीजती हुई
             छाती,
 कल ही
कल नहीं रहा

              आज नहीं
              आज,
सुन भाई
हर्गुनिया

             निर्गुनिया
             फाग.

पुलिया पर बैठा बूढ़ा

पुलिया पर
बैठा एक बूढ़ा
कांधे पर
मटमैला थैला,
थैले में
कुछ अटरम-सटरम
आलू-प्याज़
हरी तरकारी
कुछ कदली फल
पानी की एक बोतल भी है
मदिरा जिसमें मिली हुई है,
थैला भारी.

बूढ़ा बैठा
सोच रहा है
बाहर-भीतर
खोज रहा है,
सदियों से
ग़ुरबत के मारे
शोषण-दमन
ज़ुल्म सब सहते
कोटि-कोटि
जन के अभाव को
उसने भी
भोगा जाना है
उसने भी
संघर्ष किया है
आहत लहूलुहान हुआ है
सच और हक़ के
समर-क्षेत्र में
वह भी
ग़ुरबत का बेटा है.

मन ही मन
बातें करता है
गुमसुम-गुमसुम
बैठा बूढ़ा
बातों-बातों में अनजाने
सहसा उसके
क्षितिज कोर से
खरा सा कुछ बह जाता है,
चिलक दुपहरी
तृष्णा गहरी,
थैले से
बोतल निकालकर
बूढ़ा फिर
पीने लगता है
अपना कड़ुवा
राम-रसायन
पीना भी आसान नहीं है,
घूंट-घूंट
पीता जाता है
पुलिया पर
वह प्यासा बूढ़ा

उसकी
कुछ यादें जीवन की
शेष अभी भी
कुछ सपने हैं
जो उसके बेहद अपने हैं,
कुछ अपने थे
जो अब आकाशी सपने हैं,
उसकी भी
इक फुलबगिया थी,
प्राण-प्रिया थी
उसके संघर्षों की मीतुल
चंदन-गंध सुवासित शीतल
अग्नि-अर्पिता
दिवंगता है

रोया-रोया
खोया-खोया
काग़ज़ पर
लिखता जाता है
कथा-अंश
दंश जीवन के
पुलिया पर
वह बैठा बूढ़ा.
तभी अचानक
देखा उसने
झुग्गी का अधनंगा बालक
कौतुक मन से
देख रहा
सनकी बूढ़े को
बूढ़ा फिर
हंसने लगता है
बालक भी
हंसने लगता है
दोनों छगन-मगन हो जाते,
थैले से
केला निकालकर
बूढ़ा बालक को देता है
उठकर फिर वह
चल देता है
उस पुलिया से
राह अकेली
भरी दुपहरी.

12 comments:

  1. सूरत बदले
    चेहरे
    सीरत बदला
    जहान,
    पानी उतरा
    दर्पण,
    खिड़की-भर
    आसमान,
    बहुत सुंदर.. साझा करने के लिए आभार श्रोत्रिय जी!

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  2. दोनों कविताएं बहुत ही प्रभावी हैं, खास तौर पर दूसरी वाली... ऐसी सहज गीतात्‍मक लय वाली कविताएं प्रेम शर्मा जैसे बड़े कवि ही रच सकते थे। अपेक्षा है उनकी और भी रचनाएं आपके सौजन्‍य से पढ़ने को मिलेंगी।

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  3. दोनों छगन-मगन हो जाते

    इस कविता ने मेरा भी मन छगन - मगन कर दिया. कुछ मीठा कुछ तिक्त. आभार.

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  4. इस बूढ़े में कहीं खुद को देख पा रहा हूँ. मन को गहरे स्पर्श करती इन कविताओं को बांटने के लिए आभार.

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  5. bahut gahri chot deti hai doosri kvita.. aapka hriday se abhaar.. itni sundar kvita padhvaane ke liye..

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  6. बूढ़ा फिर
    हंसने लगता है
    बालक भी
    हंसने लगता है
    दोनों छगन-मगन हो जाते,
    थैले से
    केला निकालकर
    बूढ़ा बालक को देता है
    उठकर फिर वह
    चल देता है
    उस पुलिया से
    राह अकेली
    भरी दुपहरी....KHOOBSURAT BAS KHOOBSURAT......

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  7. मन के सहज भाव-छंद ! शर्मा जी की दोनों कविताएँ सुन्दर और प्रभावशाली हैं ! प्रस्तुति के लिए आभार !

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  8. जीवन के सीधे साधे रंगों से लबरेज़ हैं ये कवितायें..मोहन दा, आपने इनसे तार्रुफ़ कराया..शुक्रिया आपका..प्लीज़ टैग कर दिया करें...इसी लिये देर से आमद हुई..डांट खाने के बाद...!!

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  9. सुन्दर प्रस्तुति!
    कविताओं का चयन, प्रस्तुतीकरण और परिचय हेतु आपका हार्दिक आभार!
    परिचयात्मक भूमिका में दूसरी कविता के बारे में आपके विचार पढ़ कर कविता पढ़ना जैसे और सार्थक हो गया!
    सादर!

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  10. बहुत शानदार और लाजवाब प्रस्तुति!!! आभार

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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